Gram Farming In India: आज हम जिस चने के बारे में बात करने जा रहे हैं वह काबुली चना है। काबुली चने का इतिहास काबुल से जुड़ा है। दरअसल, शुरुआती दौर में अफगानिस्तान के लोग देश में चने बेचते थे। वह एक अच्छे ट्रेडर थे। उन्हीं के नाम पर उनकी तरफ से बेचे गए चनों को लोग काबुली चने कहने लगे और धीरे-धीरे सफेद चनों को काबुली चने के नाम से जाना जाने लगा। ये अफगानिस्तान, दक्षिणी यूरोप, उत्तरी अफ्रीका और चिली में पाए जाते रहे हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में काबुली चना को अट्ठारहवीं सदी से पेश किया गया था। भारत में चने को दो प्रजातियों जैसे देशी (कत्थई से हल्का काला) तथा काबुली (सफेद दाना) की खेती की जाती है। देशी चने की तुलना में काबुली चने की उपज कम आती है। काबुली चने को डॉलर और छोला चना भी कहा जाता है। पोषक मान की दृष्टि से काबुली चने 24.63 प्रतिशत अपरिष्कृत प्रोटीन, 6.49 प्रतिशत अपरिष्कृत रेशा, 8.43 प्रतिशत घुलनशील शर्करा, 7 प्रतिशत वसा, 40 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट के अलावा कैल्सियम, फॉस्फोरस,लोहा, मैग्नेशियम, जिंक,पोटाशियम तथा विटामिन बी-6, विटामिन-सी,विटामिन-ई प्रचुर मात्रा में पाए जाते है। ये हल्के बादामी रंग के काले चने से अपेक्षाकृत बड़े होते हैं। इसके पौधे लम्बे तथा फूल सफेद रंग के होते है। भारत में काबुली चना की खेती देशी चने की तरह ही की जाती है। भारत में काबुली चने का वर्तमान में उपयोग काफी बढ़ चुका है, जिसके कारण बाजार में काबुली चने की काफी मांग है। जिसको देखते हुए अब इसकी खेती बड़े पैमाने पर की जाने लगी है। काबुली चना किसानों के लिए काफी लाभ देने वाली खेती सिद्ध हो रही है। अगर आप भी काबुली चने के माध्यम से अच्छी कमाई करना चाहते हैं, तो आज हम आपको ट्रैक्टरगुरु की इस पोस्ट के जरिये इसकी खेती के बारे में सम्पूर्ण जानकारी देने वाले हैं।
काबुली चने का उत्पादन
दक्षिण एशिया में रबी फसलों में काबुली चना बेहद अहम फसल है। कुल वैश्विक पैदावार का 90 फीसदी हिस्सा दक्षिण एशिया में ही पैदा किया जाता है। हालांकि सूखा और बढ़ते तापमान के कारण वैश्विक स्तर पर 70 फीसदी फसल नष्ट हो जाती है। काबुली चना उत्पादन में अफगानिस्तान, दक्षिणी यूरोप, उत्तरी अफ्रीका, भारत और चिली प्रमुख देश है। दुनिया में चना उत्पादन में भारत सबसे बड़ा देश है और देश में चने के क्षेत्रफल और उत्पादन में मध्य प्रदेश का प्रथम स्थान है। चने के अंतर्गत कुल क्षेत्रफल के 85 प्रतिशत हिस्से में देशी चना तथा 15 प्रतिशत भाग में काबुली चने की खेती होती है। काबुली चने की खेती मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश आदि राज्यों में की जाती है। देशी चने की अधिक उपज के कारण ज्यादातर किसान इसी चने की खेती अधिक करते है, परन्तु डॉलर (काबुली) चने की खेती अधिक फायदेमंद सिद्ध हो रही है। डॉलर चने की खेती से अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने के लिए नवीन सस्य तकनीक विधि प्रस्तुत है ।
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भारत में काबुली चना कब बोया जाता है?
काबुली चना रबी सीजन की दलहन फसल है। असिंचित अवस्था में काबुली चना की बुवाई का उचित समय अक्टूबर का दूसरा अथवा तृतीय सप्ताह है। सिंचित अवस्था में काबुली चना की बुवाई नंबर के दूसरे सप्ताह तक अवश्य कर देनी चाहिए। उत्तर भारत में चना की खेती धान की फसल कटने के बाद भी की जा सकती है, ऐसी स्थित में बुवाई नंबर के प्रथम सप्ताह तक कर लेनी चाहिए। बुवाई में अधिक विलम्ब करने पर पैदावार में कमी हो जाती है, साथ ही काबुली चना में फली भेदक का प्रकोप होने की संभावना रहती है।
काबुली चने की खेती के उपयुक्त मिट्टी
भारतीय जलवायु के हिसाब से काबुली चने को सभी तरह की भूमि में की जा सकती है। लेकिन अच्छी पैदावार के लिए उचित जल निकास वाली बलुई दोमट से लेकर दोमट तथा मटियार मिट्टी उपयुक्त माना गया है। इसकी खेती के लिए भूमि में जल भराव नही होना चाहिए। जलभराव होने से इसकी खेती में कई तरह के रोग लग जाते हैं। इसकी खेती के लिए भूमि का पी. एच. मान 7 के आसपास होना चाहिए।
काबुली चने की खेती के उपयुक्त जलवायु
काबुली चने की फसल शीतोष्ण जलवायु की दलहन फसल है। इसकी खेती के लिए शीतोषण जलवायु उपयुक्त होती है। इसके पौधे को उचित विकास करने के लिए सर्दी के मौसम की जरूरत होती है। लेकिन पाला इसकी फसल के लिए नुकसानदायक होता है। काबुली चने की खेती के लिए सामान्य तापमान की आवश्यकता होती है। शुरुआत में इसके पौधों को अंकुरित होने के लिए 20 डिग्री के आसपास तापमान की आवश्यकता होती है। उसके बाद इसके पौधे सर्दियों के मौसम में 10 डिग्री के आसपास तापमान पर भी आसानी से विकास कर लेते हैं। जबकि दानो के पकने के दौरान इसके पौधे को 25 से 30 डिग्री के बीच तापमान की जरूरत होती है।
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काबुली चने की विकसित उन्नत किस्में
किसी भी फसल उत्पादन उस फसल की किस्म पर निर्भर करता है। फसल की अच्छी पैदावार लेने के लिए उस फसल की अच्छी किस्म का ही चयन करें। वर्तमान समय में काबुली चने की बहुत सी ऐसी प्रजाति विकसित हो चुकी है। जो रोग प्रतिरोधक एवं अधिक उपज देने वाली है। किसना मौसम एवं जलवायु के अनुसार इन उन्नत किस्मों का प्रयोग कर अधिक पैदावार ले सकते है। काबुली चना की विकसित उन्नत किस्में निम्न है- मेक्सीकन बोल्ड, पूसा शुभ्रा (बी.डी.जी. 128), जे.जी.के.2, जे.जी.के.3 (जेएस.सी.19) ,गौरी, (जी.एन.जी. 1499 के),आई.पी.सी.के 2004 – 29, फुले जी 0517, पी.के.वी. काबुली 4, पंत काबुली चना 1, राज विजय काबुली चना 101, एम.एन.के.1, एच.के. 05 – 169, सी.एस.जे.के. 6, जे.एल.के. 26155, फुले जी 0027 , जी.एन.जी. 1969, जी.एल.के. 28127, वल्लभ काबुली चना 1, जे.जी.के. 5, एन. बीइ.जी. 119, पंत काबुली चना 2 आदि।
काबुली चने बीजों की मात्रा एवं बीजोपचार
काबुली चने की खेती से अधिक पैदावार के लिए उन्नत किस्में के उचित बीजों की उचित मात्रा का होना अति आवश्यक है। काबुली चने की समय पर बुवाई एवं छोटे दाने के किस्में के लिए 75 से 80 किलोग्राम तथा बड़े दानों के किस्में के लिए 85 से 90 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीजों की आवश्यकता होती है। अच्छे अंकुरण एवं फसल की रोगों से सुरक्षा के लिए बीज शोधन अति आवश्यक है। उकठा एवं जड़ सड़न रोग से फसल की सुरक्षा हेतु बीज को 1.5 ग्राम थाइरम व 0.5 ग्राम कार्बेन्डाजिम के मिश्रण अथवा ट्राइकोडर्मा 4 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करना चाहिए।
काबुली चने में खाद एवं उर्वरक का प्रयोग
काबुली चना बोने से पहले खेत की मिट्टी का रासायनिक परीक्षण करवाना चाहिए। रासायनिक परीक्षण से मिट्टी में सूक्षम एवं वृहत रासायनिक खादों की प्रतिशत मात्रा का पता चल जाता है। इससे वहाँ भूमि में उर्वरक की मात्रा परिस्थिति के अनुसार घटाई या बढाई जा सकती है। काबुली चना के पौधों की जड़ों में पायी जाने वाली ग्रन्थियों में नत्रजन स्थिरीकरण जीवाणु पाए जाते हैं। जो वायुमंडल से नत्रजन अवशेषित कर लेते हैं। इस नत्रजन का उपयोग पौधे अपने वृद्धि में करते हैं। सामान्य दशा में चना की अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए 20 किलोग्राम नत्रजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस, 20 किलोग्राम पोटाश एवं 20 किलोग्राम गंधक प्रति हेक्टेयर का प्रयोग करना चाहिए। खेत में सूक्षम तत्वों की कमी होने पर जिंक सल्फेट (जस्ता) 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तथा बोरान एवं मालिब्ड़ेटकी कमी होने पर क्रमश: 10 किलोग्राम बोरेक्स पौडर व 1.5 किलोग्राम अमोनिया माँलिब्डेट प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करने पर काबुली चना के उत्पादन में वृद्धि होती है।
काबुली चने की फसल के कुछ प्रमुख रोग
कुछ विशेष रोगों का काबुली चने की फसल पर प्रकोप एवं इनकी रोकथाम का विवरण निम्नवत है:
- धूसर फफूंद: यह रोग पौधों में फूल एवं फली के विकसित होने के समय पर अनुकूल वातावरण में आता है। अधिक आर्द्रता होने पर भूरे या काले भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। फूल झड जाते हैं एवं रोग ग्रसित पौधों में फलियाँ नहीं बनती हैं।
- नियंत्रण: कवकनाशी रसायन जैसे मेंकोजेब 720 ग्राम प्रति लीटर, कार्बेन्डाजिम 500 प्रति लीटर का छिडकाव प्रभावित पत्तियों पर करना चाहिए ।
- उकठा रोग: इस रोग के लक्षण पौधों में बुवाई के बाद 30 से 40 दिनों के बाद देखने को मिलता है। इस रोग के कारण पौधों की पत्तियों में पीलापन उत्पन्न होने लगता है जिस कारण पौधा सूख जाता है।
- नियंत्रण: बीज को फफूंदी रसायन से शोधित करके बोना चाहिए। इसके लिए वीटावेक्स 1 ग्राम को 4 ग्राम थीरम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार करना चाहिए।
- शुष्क मूल विगलन: यह मृदा जनित रोग है । यह रोग राईजोक्तोनिया बटाटिकोला नमक कवक से होता है। इस रोग का प्रकोप पौधों में फूल आने एवं फलियाँ बनते समय होता है। प्रभावित पौधों की जड़ अविकसित तथा काली होकर सड़ने लगती है। जड़ों के दिखायी देने वाले भागों एवं तनों के आंतरिक भाग में छोटे काले रंग की फफूंदी देखी जा सकती है।
- नियंत्रण: उकठा रोग की तरह नियंत्रण विधि का प्रयोग करना चाहिए। यदि समय पर सिंचाई कर ली जाये तो इस रोग पर नियंत्रण हो सकता है।
- स्तम्भ मूल संधि विगलन: इस रोग का प्रकोप प्राय: सिंचित क्षेत्रों अथवा बुवाई के समय मृदा में नमी की अधिकता एवं तापमान 30 सेंटीग्रेट के आसपास होने पर होता है। तने के सड़े भाग से जड़ तक सफेद फफूंद एवं कवक के जाल पर राई के दाने के आकार के फफूंद के बीजाणु दिखाई देते हैं।
- नियंत्रण: बीज को शोधित करके बोना चहिये, बुवाई एवं अंकुरण के समय मृदा में अधिक नमी होनी चाहिए।
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काबुली चने की फसल में कीट नियंत्रण
काबुली चने की फसल की पैदावार पर सबसे अधिक प्रभाव कीटों का होता है। अतः कीटों की रोकथाम करना अति आवश्यक होता है। उचित रोकथाम करके फसल से अच्छी उपज प्राप्त की जा सकती है। काबुली चने की फसल में कीटों का रोकथाम विवरण :
चने का कटवर्म व दीमक: रोकथाम के लिये क्यूनालफॉस 1.5 प्रतिशत चूर्ण 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई से पूर्व मिट्टी में अच्छे से मिला दे।
चना फली भेदक: फली छेदक के रोकथाम के लिये प्रारम्भिक अवस्था में एन.पी.वी. 250 एल.ई. प्रति हेक्टेयर की दर से 15 से 20 दिनों की अन्तराल से तीन बार उपयोग करें। काबुली चने की खड़ी फसल पर 50 प्रतिशत फूल आने पर बी.टी. 1500 मि.ली. या नीम का तेल 700 मि.ली. का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।